६ फरवरी, १९५७

 

         ''मृत्यु बह प्रश्न है जिसे प्रकृति सदा ही 'जीवन'के सामने उसे यह स्मरण दिलानेके लिये रखती है कि उसने अभीतक अपने- को नहीं ढूंढा है । यदि मृत्युका घेरा न होता तो प्राणी सदा- के लिये एक अपूर्ण जीवनके ढांचेके साथ बंधा रहता । मृत्यु- द्वारा पीछा किये जानेपर वह पूर्ण जीवनके विचारके प्रति जागृत हो जाता है तथा उसके साधन और उसकी संभावना- की खोज करता है ।',

 

(विचार और झांकियां)

 

          हमारे लिये यह विषय इतना सुपरिचित है कि इसपर और कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं लगती । यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे प्रत्येक मनुष्य, जिसकी चेतना जरा भी जाग्रत है, जीवनमें कम-से-कम एक बार तो अपने- सें करता ही है । सत्ताकी गहराइयोंमें जीवनको जारी रखने, उसे लंबा करने और उसका विकास करनेकी एक ऐसी आवश्यकता विद्यमान है कि जिस क्षण मृत्युके साथ ब्यक्तिका पहला संपर्क होता है, चाहे वह संपर्क

 

३३


बिलकुल अकस्मात् हुआ हो, पर जिसका होना अनिवार्य है, तो उससे सत्ता- मे एक प्रकारका हटाव होता है ।

 

         कुछमें, जो संवेदनशील होते हैं, यह संत्रास पैदा करता है, दूसरोंमें रोष । ब्यक्तिकी अपने-आपसे यह पूछनेकी प्रवृत्ति होती है : ''यह भयावह प्रहसन 'क्या है जिसमें हम बिना चाहे और बिना समझे हिस्सा लेते है? यदि मरना ही है तो हम पैदा ही क्यों होते है? प्रगति, उन्नति और अपनी शक्तियोंके विकासके लिये किये गायें प्रयलोंसे लाभ ही क्या यदि इनका अंत हाथमें, अधोगति और विघटनमें होना है?.. .'' कुछ विद्रोह करते हैं, दूसरे, कमसबल, निराश हों जाते हैं । यह प्रश्न सदा ही किया जाता है : ''यदि इस सबके पीछे एक चेतन 'संकल्प' विद्यमान है तो वह दानवी प्रतीत होता है ।''

 

         परन्तु श्रीअरविन्द यहां हमें बताते हैं कि मृत्यु जड-तत्त्वकी चेतनामें पूर्णताकी प्यास और प्रगतिकी आवश्यकताको जगानेके लिये एक अनिवार्य साधन है, और यह कि इस महाविपत्तिके बिना सनी प्राणी उसी अवस्थामें, जिसमें वे थे, संतोष किये पड़े रहते -- शायद... । यह निश्चित नहीं है ।

 

          परन्तु अब हम बाध्य है चीजोंको उसी रूपमें लेनेके लिये जैसी कि वें है और, अपनेसे कहते है कि इससे बाहर निकलनेके साधनोंका जैसे भी हो पता लगाना चाहिये ।

 

        वास्तविक बात तो यह है कि सब चीजों सतत प्रगतिशील विकासकी एक अवस्थामें है, अर्थात् सारी सृष्टि, सारा विश्व एक पूर्णताकी ओर आगे बढ़ रहा है और ज्यों-ज्यों व्यक्ति इसकी ओर आगे बढ़ता है यह पूर्णता पीछे हटती प्रतीत होती है कारण, जो किसी समय पूर्णता प्रतीत होती थी बह कुछ समय बाद वैसी नहीं रहती । हमारी चेतनामें जो सूक्ष्मतम स्थितियां है वे तो इस पूर्णताका इसके उत्पन्न होनेके साथ ही तुरत अनुसरण कर लेती है और सीढीपर ज्यों-ज्यों हम अधिक ऊंचे चढ़ते जाते है त्यों-त्यों हमारी प्रगतिकी लय विश्व-प्रगतिकी लयके साथ अधिक मेल खाने लगती है और भागवत विकासकी लयके अधिक नजदीक पहुंच जाती है । परन्तु स्थूल जड़-जगत् स्वभावसे ही कठोर है, वहां परिवर्तन धीमा, अत्यंत धीमा होता है, उस कालगणनाके विचारसे जैसा कि मानव चेतना उसे देरवती है दृष्टिमें न आने जैसा होता है ।... और इस प्रकार होता यह है कि आंतरिक और बाह्य गतियोंमें एक सतत असंतुलन रहने लगता है और यह असमतोलता ही, आंतरिक प्रगतिकी गतिका अनुसरण करनेकी बाह्य ढांचेके यह अक्षमता ही, ढांचेके अपघटन और उसके परिवर्तनकी आवश्यकता उत्पन्न करती है । परन्तु यदि, इस जड-तत्वके, व्यक्ति चेतनासे इतनी

 

३४


पर्याप्त मात्रामें भर दे कि इसकी भी वही लय बनी रहे, यदि जुड़-तत्व आंतरिक प्रगतिका अनुसरण करनेके लिये पर्याप्त रूपसे नमनीय बन सके तो संतुलन भंग नहीं होगा और फिर मृत्यु भी जरूरी नहीं रहेगी ।

 

       इस प्रकार, श्रीअरविन्द हमें जैसा बताते है उसके अनुसार, प्रकृतिने इस अधिक उग्र साधनको इसलिये चूना कि भौतिक चेतनामें आवश्यक अभीप्सा और नमनीयता जगायी जा सकें ।

 

        यह स्पष्ट ही है कि जड़-तत्वकी सबसे प्रमुख विशेषता है तमs और यह भी कि यदि यह उग्र प्रयोग न होता तो शायद प्रत्येक व्यक्ति-चेतना इतनी तामसी होती कि वह किसी परिवर्तनकी अपेक्षा अपूर्णतामें ही निरन्तर बने रहना स्वीकार कर लेती... । यह संभव है । कुछ -मी हो, चीजों अब ऐसी ही है, और हमारे लिये, जो कुछ अधिक जानते हैं, बस, एक ही चीज करनेंको शेष रह जाती है और वह है, जहांतक हमें साधन उपलब्ध हैं, 'शक्ति' 'चेतना'- के, इस नयी 'शक्ति'के आवाहनद्वारा इस सबको बदल देना, इस 'शक्ति'के पास ऐसी सामर्थ्य है कि यह जड़-पदार्थमें उस प्रकारके स्पन्दनका संचार कर सकती है जो इसका रूपांतर कर दें, इसे नमनीय, कोमल और प्रगामी बना दे ।

 

         स्पष्ट ही इसमे' सबसे बढ़ी बाधा है वस्तुओंके वर्तमान स्वरूपके प्रति तासक्ति । और प्रकृति भी, समष्टि रूपमें, यह देखती है कि जिनके पास अधिक गहन शान है वे अधिक तेजीसे बढ़ जाना चाहते है : उसे अपने घुमावदार रास्ते पसंद है, उसे पसंद है कि एकके-ब।द-एक प्रयत्न चलते रहें, विफलताएं आयें, और फिर नया आरंभ हो और नयी खोजों हों, उसे अपने सनकी तौर-तरीके और परीक्षणोंमें हो जानेवाली अकल्पित, अप्रत्याशित बातें परांद हैं । हम कह सकते है इस सबमें जितना अधिक समय लगता है उतना ही उसका मनोरंजन होता है ।

 

       परन्तु बढ़िया-सें-बढ़िया खेलसे भी हम तंग आ जाते है । समय आता है जब हम उसके बदले जानेकी आवश्यकता अनुभव करते है । हम एक एसे खेलक। स्वप्न ले सकते- है जिसमें आगे बढ़नेके लिये कुछ भी नष्ट करना जरूरी न हों, जहां प्रगति करनेका उत्साह इतना हो कि वह नये साधनों और नयी अभिव्यक्तियोंको ढूंढ निकाले, जहां उमंग इतनी तीव्र हों कि बह सदस्, शिथिलता, दुर्बोधता, थकान और उदासीनतापर विजय पा ले।

 

       भला यह शरीर, जैसे ही हम कुछ उन्नति कर लेते हैं, बैठ जानेकी आवश्यकता क्यों अनुभव करता है? यह थक जाता है । कहता है : ''ओह! ठहरो, मुझे थोड़ा विश्राम कर लेने दो ।'' यही चीज है जो इसे मृत्युकी

 

३५


ओर ले जाती है । यदि यह अपनेमें सदा ही और अधिक अच्छा करने, और अधिक पवित्र होने, और अधिक सुंदर होने, और अधिक प्रकाशपूर्ण होने और सदा-सर्वदा युवा बने रहनेका प्रबेग अनुभव कर सकता तो व्यक्ति प्रकृतिके इस भयंकर परिहाससे बच सकता ।

 

        उसके लिये इसका कुछ महत्व नहीं । वह सारी चीजको एक साथ देखती है, समग्रताको देखती है । वह देखती है कि कुछ भी खोया नहीं गया है, यह तो महज मात्राओंका, अनगिनत छोटे-छोटे तत्त्वोंका, जिनका कुछ महत्व नहीं, पुनर्मिश्रणभर है । उन्हें वह बर्तनमें फिरसे डाल देती और अच्छी तरह मिलाती है ताकि उनसे वह कुछ नयी चीज तैयार कर सके । पर यह खेल हर किसीके लिये मनोरंजक नहा होता । यदि कोई व्यक्ति अपनी चेतनामें उतना ही विशाल बन सके जितनों कि वह है और उससे भी अधिक शक्तिशाली बन जाय तो डमी चीजको और अधिक अच्छी तरह भला क्यों नहीं कर सकता?

 

         यही समस्या है जो इस समय हमारे सामने है । यह जो नयी 'शक्ति' उतरी है, जो अपने-आपको मूर्तिमंत करनेमें लगी है और कार्यतत्पर है उसकी इस बढ़ी हुई सहायतासे क्यों न हम खेलको अपने हाथमें लेकर इसे अधिक सुंदर, अधिक सामंजस्यपूर्ण और अधिक सवर्ण। बना डालें?

 

        यदि कुछ मस्तिष्क इतने समर्थ हों कि वे इस 'शक्ति'को ग्रहण कर सकें और इसकी संभावनीय क्रियाको आकार प्रदान कर सकें तो यह काफी है । और कुछ बहुत ही प्रतापी व प्रबुद्ध सत्ताओंका होना भी जरूरी है जो प्रकृति- को यह विश्वास दिला सकें कि उसकी पद्धतियोंसे भिन्न दूसरी पद्धतियां भी है... । यह एक पागलपन-सा प्रतीत होता है । पर सभी नयी चीजों, जबतक कि वे वास्तविकताएं नहीं बन गयीं, सदा पागलपन ही प्रतीत होती रही है ।

 

         अब वह घड़ी आ गयी है कि यह पागलपन एक वास्तविकताका रूप ले । और चूंकि हम सब किन्हीं विशेष कारणोंसे -- शायद हममेंसे बहुतोंको अज्ञात, फिर भी बहुत ही सचेतन कारणोंसे -- यहां हैं, हम अपने अंदर यह निश्चय ले सकते हैं कि हमें इस पागलपनको ससिद्ध करना है, कम-से-कम इसे जीनेका परिश्रम भी सार्थक है ।

 

३६